Wednesday, January 28, 2015

तरक्की की होड़

जब हम छोटे बच्चे थे
दिल से हम सच्चे थे
जात पात का नहीं था ज्ञान
भेद भाव से थे अनजान

जब हम छोटे बच्चे थे
गली में जा खेला करते थे
छत पर रात रात की बैठक थी
चारपाई पर सेज सजती थी

जब हम छोटे बच्चे थे
मिलकर एक घर में रहते थे
राह हमारी एकता की थी
सारे रिश्तों में सच्चाई बसती थी

घर में जो एक टीवी था 
दूरदर्शन उसमें चलता था
बुनियाद हमारी पसंद थी
महाभारत और रामायण भी देखी थी

अब समय और हो चला है
अब हमारे बच्चे हैं
दूरियां अब हमारे बीच हैं बढ़ी
रिश्तों में भी दरार पड़ी

अब हम अपने घर में रहते हैं
तमाम चैनल्स देखते हैं
मिलने का अब वक़्त ढूँढते हैं
फेसबुक और स्काइप पर मिलते हैं

रिश्तों में अब ना वो महक है
ना है डोर रिश्तों की पक्की
चेहरे पर अब मुस्कान तो होती है
पर दिलों से गर्मजोशी गायब है

जब हम छोट्टे बच्चे थे
साथ में हम रहते थे
आज जब हमारे बच्चे हैं
हम अपनों से बेगाने रहते हैं

तब हम दिल से रिश्ते निभाते थे
आज हर रिश्ता बोझ लगता है
तरक्की की होड़ में हमने 
गवां दिए हैं कुछ अपने||

Tuesday, January 20, 2015

जीवन पत्तों सा

पत्तों से सीखो तुम ज़िन्दगी का अफ़साना
जीते है वो तुम्हें देने को स्वच्छ वायु
जीते हैं वो तुम्हें देने को फल और फ़ूल
देते हैं सारी उम्र वो दूसरो को
सूख कर भी वो करते हैं भला सबका
पेड़ उनको भले ही झाड़ कर गिरा दें
पत्ते फिर भी खाद बन पेड़ के ही काम आते हैं
कुछ भी हो रिश्ते तो पत्तों से सीखो
जड़ तो सिर्फ पेड़ को पानी सींचती है
जड़ तो केवल पेड़ को तान कर रखती है।

Sunday, January 18, 2015

ज़िन्दगी की ज़ुत्सजु

ज़िन्दगी की जुत्सजु में हुआ है कमाल
ज़िन्दगी को ही जीने की चुनौती दिए बैठे हो
ज़िन्दगी की हर चाल तुम्हारे लिए है
और तुम उस चाल पर भी अपनी चाल लिए बैठे हो

क्या ज़ुल्म ज़िन्दगी तुमपर करेगी 
तुम खुद अपनी हार की माला लिए बैठे हो
ज़िन्दगी से इस द्वंद्व में लड़ ज़िन्दगी से
तुम खुद अपनी असफलता संवार बैठे हो

गर गिरेबां में अपने झाँक कर देखोगे
हर लुत्फ़ ज़िन्दगी से उधार लिए बैठे हो
ये आशियाँ, ये लम्हें, ये वादियाँ
ज़िन्दगी ने ही तुम्हारी इससे तुम्हें नवाज़ा है

ना ज़िन्दगी को यूँ तुम दो चुनौती
कि ज़िन्दगी चुनौतियों से जूझना है सिखाती
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर कोई सबक
ज़िन्दगी तुम्हें है सिखाती

ना यूँ करो तुम ज़िन्दगी से कोई शिकवा 
कि ना यूँ करो तुम उसे बेज़ार
अपने ही गिरेबान में एक बार झाँक कर देखो
ज़िन्दगी से तुम लिए बैठे हो ज़िन्दगी उधार||

Saturday, January 10, 2015

चंद प्रश्न और प्रार्थना

क्या तुम शान्ति नहीं चाहते?
क्या तुम्हारे जीवन में नहीं कोई रस?
क्यों तुम फैलाते हो आतंक?
क्या यही है तुम्हारा धर्म?
क्या नहीं चाहते तुम जीना?
क्या नहीं चाहते लाना जीवन में नवरस?

क्या तुम ईश्वर को नहीं पूजते?
क्या तुम धर्मान्धता में हो डूबे?
क्यों फैलाते हो तुम यूँ आतंक?
क्या नहीं चाहते धरती पर शान्ति?

क्या यही लिखा है प्रार्थनाओं में तुम्हारी?
क्या यही है धर्म की परिभाषा?
क्या जीवन में और नहीं कोई लक्ष्य?
क्या नहीं लाना चाहते तुम जीवन में नवरस?

क्यों फैलाते हो अशांति?
क्यों मारते हो मानवता को?
क्यों फैलाते हो द्वेष?
क्यों करते हो दुराचार?
क्यों हो तुम पथभ्रष्ट?
क्यों करते हो धर्म को कलंकित?
क्यों नहीं जीते और जीने देते?
क्यों करते हो ईश्वर पर दोषारोपण?

यही है आज का सच कि तुम पथभ्रष्ट हो 
हाँ तुम पथभ्रष्ट हो, अपने लक्ष्य से अनजान हो

 सुन किसी और का धर्मोपदेश
सुन किसी और की धर्मव्याख्या
चल पड़े हो तुम अन्धकार की और
ना राह वो सही है, ना है वो सरल
हर पथ उस राह का 
जाता है मृत्यु की और 
जीवन को नीरस कर 
ना चलो तुम उस राह पर

जीवन में नवरस का श्रृंगार करो
जीवन में मधुरता का रस घोलो
नहीं कोई धर्म कहता 
कि तुम जीवन से छेड़छाड़ करो
हर धर्म हर ईश्वर यही कहता है
मानवता का तुम श्रृंगार करो

प्रेम प्रतिज्ञा कर आज तुम
आतंक का साथ छोडो
दुराचारी का साथ छोड़
मानवता के सृजन में
आज तुम योगदान करो||