Sunday, June 10, 2012

तलाश-ऐ-मंजिल

मैं जो निकला अपने शहर से
दुनिया अपनी छोड़ कर
सपनो की मंजिल खोजता हूँ
राहों में ठोकरें खाता हूँ

ना कोई घर है ना ठीकाना 
हर कोई यहाँ बेगाना
सपनो की मंजिल खोजता हूँ
भीड़ में राहें खोजता हूँ

जग ये सारा अजनबी है 
शक्लें यहाँ है बेगानी
ना कोई साया साथ है
ना है कोई अपना यहाँ 

मुश्किल इन हालातों में 
आँसूं सारे सूख गए
अब तो सूनी इन आँखों से 
सपनों में भी धुंआ उठता है 

निकला जो मैं अपने शहर से
मंजिल की राह खोजता हूँ
सपनो को सच करने चला में
आज राहों में ख़ाक छानता हूँ

कब मिलेगी मेरी मंजिल मुझे
कब होंगे सपने पूरे
ना अब ये फिक्र है मुझे
ना ही कोई चाह है बाकी

मैं जो निकला अपने शहर से
आज राहों में ख़ाक छानता हूँ
सूनी इन आँखों से 
मंजिल को अपनी खोजता हूँ

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