Thursday, December 29, 2011

गुजारिश - ऐ - बंदगी

एक  अरसा हुआ कि हमारी एक अज़ीज़ दोस्त ने कुछ लफ्जात लिखे और हम उन्हें पढ़ ग़मगीन हो उठे थे....

लेकिन आज जब फिर पढ़ा उनका वो कलाम, तो दिल से निकले कुछ लफ्ज़, ये कलाम है उस दोस्त को सलाम और है उनको हमारा एक पैगाम....

गम का खजाना अंखियों में छुपा बैठे हो
इस जग में अपनी खुशी लुटा बैठे हो
क्यों करते हो गिला ऐसा
कि दामन में रंज-ओ-गम लिए बैठे हो
दुखियार न बन इस दुनिया में इतना
कि जीना दुश्वार ना हो जाए
ज़ख्मों को इतना न कुरेद तू
कि ज़ख्म नासूर न बन जाएँ
जीना है गर दुनिया में तो
सर उठा कर जी ऐ राही
न कर तू हिसाब ग़मों का
कि खुदाई बेजार ना हो जाए
है वक़्त गवाह तेरा है तारीख नज़र
खुशियाँ हैं छुपी दामन में तेरे
ना यूँ आँखों से अपनी खून बहा
कि  खुदा का सर भी झुक जाए
ऐ बंदे उठ देख एक नज़र
खुशियों से भरा ये समां ये मंज़र
नेमत खुदा की तू देख,
देख तू उसकी बंदगी 

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