Thursday, May 26, 2011

मोहब्बत का परवाना


हमने दो लफ्ज क्या कहे इश्क पर
कि दुनिया ने हमें यूँ सुनाया
न हम सोच सके कि क्या है खता हमारी
कि काँटों से हमारी सेज को सजाया
ना जानते थे कि वो लफ्ज हमारे
करेंगे हमें इस कदर रुसवा
कि बेआबरू कर हमें
यूँ जार जार करेगी दुनिया
कैसे कहें उनसे हम अपनी कहानी
कैसे बयां करें हाल-ऐ-जिंदगानी
क्या कहें कि क्या दर्द है इस दिल में
कि कैसे नासूर है दबे इस दिल में
कैसे हमनें संभाला है इस बेजुबान को
जब इसनें इश्क का कलमा पढ़ा
कैसे उबारा हमनें इस दिल को
जब इसनें मोहब्बत के दरिया में डूबना चाहा
कैसे थामा हमनें इस दिल को
जब इसनें प्यार का इकरार किया
कैसे सवानरी है हमनें ये जिंदगी
जब इस जिंदगी नें हमें खाकसार किया
ना समझों हमें इश्क की गलियों में नादाँ
कि हमारे ही आंसुओं ने इस गली को आबाद किया
कि हमारे दिल ने डूब दरिया में गहराई को नापा है
कि हमारे दिल ने दर्द के समंदर का तूफ़ान देखा है
खुशी तो इसनें छोड़ दी थी दोस्त की चाहत में
रांझे से ज्यादा इसनें इस जमीन पे प्यार फेंका है
फिर भी ये दिल न पागल हुआ न दीवाना
ये तो बना मोहब्बत कि शमा पर कुर्बान एक परवाना

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