Thursday, April 19, 2007

एक नज़्म तन्हाई पर


तन्हाई का आलम मुझे हर कहीँ घेर लेता हैं
भीड़ में भी तनहां होने का गुमां होता है
की तनहां आये हैं, तनहां ही चले जाना है,
फीर भी तनहां रहने से दिल बेजाँ परेशां क्यों है

तन्हाई का आलम मुझे हर कहीँ घेर लेता है
भीड़ में भी तन्हाई का गुमां होता है
वो पूछते हैं की तन्हाई में क्या रक्खा है
नादां हैं वो क्या जाने
की तन्हाई के साए में हमारा दिल रक्खा है
दर्दे दिल का एक तस्सव्वुर रक्खा है

की तन्हा आये हैं, तन्हा ही चले जाएंगे
फीर तन्हा रहने से दिल बेजाँ परेशां क्यों है





No comments: